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2024-2025 की भारतीय राजनीति में फासीवादी प्रवृत्तियाँ: बी.एस. मुंजे और मुसोलिनी के संदर्भ

भूमिका: फासीवाद और बी.एस. मुंजे का ऐतिहासिक प्रसंग

बेनिटो मुसोलिनी द्वारा स्थापित फासीवाद एक ऐसी राजनीतिक विचारधारा थी जो लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं का विरोध कर निरंकुश शासन, उग्र राष्ट्रवाद (चरम राष्ट्र-भक्ति) तथा युद्धवाद (सैन्य शक्ति के प्रयोग का गुणगान) को बढ़ावा देती थी (When Hindu Mahasabha leader BS Moonje was influenced by Mussolini – जब मुसोलिनी से प्रभावित हुआ था हिंदू महासभा का बड़ा नेता, कहा था- बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठन की जरूरत | Jansatta)। 1920-30 के दशक में हिंदू महासभा के नेता बाबूराव सदाशिव (बी.एस.) मुंजे यूरोप में उभर रही इसी फासीवादी विचारधारा से गहराई से प्रभावित थे। मार्च 1931 में इटली यात्रा के दौरान मुंजे ने मुसोलिनी से मुलाकात की और वहां के फासीवादी युवा संगठनों (जैसे बालिला नामक युवा ब्रिगेड) की खुले दिल से प्रशंसा की (When Hindu Mahasabha leader BS Moonje was influenced by Mussolini – जब मुसोलिनी से प्रभावित हुआ था हिंदू महासभा का बड़ा नेता, कहा था- बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठन की जरूरत | Jansatta) (When Hindu Mahasabha leader BS Moonje was influenced by Mussolini – जब मुसोलिनी से प्रभावित हुआ था हिंदू महासभा का बड़ा नेता, कहा था- बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठन की जरूरत | Jansatta)। अपने वक्तव्यों में मुंजे ने कहा कि हर महत्वाकांक्षी और बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठनों की जरूरत है” (When Hindu Mahasabha leader BS Moonje was influenced by Mussolini – जब मुसोलिनी से प्रभावित हुआ था हिंदू महासभा का बड़ा नेता, कहा था- बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठन की जरूरत | Jansatta)। मुसोलिनी की तरह के एक मजबूत तानाशाह द्वारा पूरे देश में एकरूपता लाने का मुंजे ने सपना देखा – उन्होंने माना कि भारत में भी मुसोलिनी या हिटलर जैसे नेता के बिना हिंदू राष्ट्र का आदर्श साकार नहीं हो सकता” (When Hindu Mahasabha leader BS Moonje was influenced by Mussolini – जब मुसोलिनी से प्रभावित हुआ था हिंदू महासभा का बड़ा नेता, कहा था- बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठन की जरूरत | Jansatta)। इटली से लौटकर मुंजे ने भारत में सैनिक प्रशिक्षण हेतु नासिक में भोंसला मिलिटरी स्कूल की स्थापना की, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की संरचना में भी मिलिटरी कैडेट जैसे अनुशासन के बीज डाले (B. S. Moonje – Wikipedia)। 1933 में ब्रिटिश पुलिस अधिकारी भी नोट करते हैं कि भविष्य के भारत में आरएसएस इटली के ‘फासीवादियों’ और जर्मनी के ‘नाज़ियों’ की तरह साबित हो सकता है” (When Hindu Mahasabha leader BS Moonje was influenced by Mussolini – जब मुसोलिनी से प्रभावित हुआ था हिंदू महासभा का बड़ा नेता, कहा था- बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठन की जरूरत | Jansatta)। स्पष्ट है कि हिंदुत्व की प्रारम्भिक विचारधारा पर फासीवाद की छाप थी।

इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में, यह रिपोर्ट 2024–2025 की भारतीय राजनीति के प्रमुख उदाहरणों का विश्लेषण करेगी जो मुंजे एवं मुसोलिनी की विचारधारा से मिलती-जुलती प्रवृत्तियाँ दर्शाते हैं। विशेष रूप से, हम चार पहलुओं पर ध्यान देंगे: (1) संगठित राष्ट्रवाद व “राष्ट्र सर्वोपरि” की भावना, (2) सैन्यीकरण और शक्ति-प्रदर्शन का राजनीतिक इस्तेमाल, (3) असहमति के प्रति असहिष्णुता, तथा (4) मीडिया एवं शैक्षणिक-सांस्कृतिक संस्थानों पर नियंत्रण। प्रत्येक विषय में वर्तमान घटनाओं/नीतियों को ऐतिहासिक फासीवादी प्रवृत्तियों के संदर्भ में जोड़कर देखा जाएगा।


राष्ट्र सर्वोपरि: संगठित राष्ट्रवाद की राजनीति

फासीवादी सिद्धांतों में राष्ट्र सर्वोपरि का सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण था – व्यक्तिगत अधिकार, बहुलवाद या अल्पसंख्यक हितों से ऊपर राष्ट्र की एकता और महिमा को रखा जाना (When Hindu Mahasabha leader BS Moonje was influenced by Mussolini – जब मुसोलिनी से प्रभावित हुआ था हिंदू महासभा का बड़ा नेता, कहा था- बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठन की जरूरत | Jansatta)। आज के भारत की राजनीति में भी पिछले कुछ वर्षों से आक्रामक राष्ट्रवाद (aggressive nationalism) केंद्रीय विषय बन गया है। सत्तारूढ़ दल द्वारा राष्ट्र-भक्ति को राजनीतिक वैधता का मानक बनाया जा रहा है, जिसमें देश सर्वोपरि” होने का संदेश बार-बार उभरता है। देश की एकता, अखंडता और गौरव के नाम पर नीतियाँ बन रही हैं और विरोधियों को अक्सर इस कसौटी पर तौला जाता है कि वे कितने “राष्ट्रवादी” हैं।

राष्ट्रवादी कथनों और नीतियों के उदाहरण

  • नेताओं के भाषण व नारे: प्रधानमंत्री से लेकर कई मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के भाषणों में राष्ट्र प्रथम” की थीम प्रमुख रहती है। उदाहरणस्वरूप, प्रधानमंत्री ने एकाधिक बार कहा है कि भारत के लिए मेरा धर्म ‘इंडिया फ़र्स्ट’ है” यानी राष्ट्र ही सर्वोच्च आराध्य है। इसी प्रकार भारत माता की जय” और वंदे मातरम्” जैसे नारों को राष्ट्रभक्ति की पहचान के रूप में प्रस्तुत किया गया। जो लोग इन प्रतीकों/नारों का विरोध करते हैं या प्रश्न उठाते हैं, उन्हें राष्ट्र-विरोधी करार दिया जाता है। यह प्रवृत्ति 1920-30 के दशक के यूरोपीय फासीवाद से मेल खाती है जहां राष्ट्र के प्रतीकों का अनादर भारी अपराध माना जाता था।
  • एक राष्ट्र’ वाले अभियानों का ज़ोर: केंद्र सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों में एकरूपता लाने के लिए वन नेशन, वन टैक्स” (GST), वन नेशन, वन राशन-कार्ड” जैसी नीतियाँ लागू कीं और वन नेशन, वन इलेक्शन” (एक साथ चुनाव) जैसे प्रस्ताव रखे। इन कदमों के समर्थकों का तर्क है कि इससे राष्ट्र की एकता और शक्ति बढ़ती है, जबकि आलोचकों का मानना है कि अत्यधिक केंद्रीकरण से संघीय ढाँचा और विविधता प्रभावित होती है। फिर भी, एक भारत, श्रेष्ठ भारत” जैसे नारों से यह स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय एकीकरण एवं संकेन्द्रित सत्ता को प्राथमिकता दी जा रही है, जो फासीवादी एकरूपता के सिद्धांत से प्रभावित दिखती है।
  • राष्ट्रीय प्रतीकों का व्यापक प्रदर्शन: 2022 के आज़ादी के 75वें वर्ष पर सरकार ने हर घर तिरंगा” अभियान चलाया, जिसमें नागरिकों को अपने घर पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने को प्रोत्साहित किया गया। ऐसे राष्ट्रव्यापी अभियानों से संगठित जन-राष्ट्रीयता का प्रदर्शन होता है। इसी तरह संसद के नए भवन के उद्घाटन से लेकर गणतंत्र दिवस समारोह तक, हर अवसर को “नए भारत” के शक्ति-सम्पन्न राष्ट्रवाद से जोड़ा गया। इन आयोजनों में ऐतिहासिक नायकों (जैसे सुभाष चंद्र बोस, वल्लभ भाई पटेल) के प्रति सम्मान जताकर यह संदेश दिया जाता है कि वर्तमान सरकार ही सच्चे अर्थों में राष्ट्र की विरासत को आगे बढ़ा रही है।

उपरोक्त उदाहरण दिखाते हैं कि राष्ट्रवाद की एक संगठित, केंद्रीकृत भावना 2024-25 की राजनीति में एक प्रमुख driving force है। यह वही प्रवृत्ति है जिसकी वकालत मुंजे ने की थी – एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन जो जनसमुदाय को एक ध्वज के नीचे संगठित करे और राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हुए किसी भी भीतरी विभाजन को अस्वीकार करे। हालांकि राष्ट्रप्रेम अपने-आप में सकारात्मक हो सकता है, लेकिन जब सत्ता के उपकरण के रूप में अतिराष्ट्रवाद का उपयोग हो तो यह लोकतांत्रिक संतुलन को प्रभावित कर सकता है, जैसा कि फासीवादी सरकारों के इतिहास से पता चलता है।

सैन्यीकरण एवं शक्ति-प्रदर्शन का राजनीति में उपयोग

बी.एस. मुंजे ने फासीवादी इटली में जिस चीज़ से सबसे अधिक प्रेरणा ली थी, वह था समाज का सैन्यीकरण – यानी आम जनता, विशेषकर युवाओं में सैनिक-जैसा अनुशासन, लड़ाकू भावना और शारीरिक प्रशिक्षण का प्रसार (B. S. Moonje – Wikipedia) (B. S. Moonje – Wikipedia)। फासीवादी विचारधारा में सैन्य शक्ति का महिमामंडन किया जाता है और आक्रामक शक्ति-प्रदर्शन को राष्ट्रीय गौरव से जोड़ा जाता है। आधुनिक भारतीय राजनीति में भी 2014 के बाद से सेना एवं रक्षा क्षेत्र से जुड़ी उपलब्धियों/कार्रवाईयों को राजनीतिक बढ़त के लिए भुनाया जाना तेज़ हुआ है, जो इसी प्रवृत्ति का आधुनिक प्रतिबिंब दिखाता है।

सेना और सुरक्षा का राजनीतिक मंच पर उभरना

  • सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट हवाई हमले का महिमामंडन: 2016 में आतंकवाद के खिलाफ नियंत्रण रेखा पार भारतीय सेना की “सर्जिकल स्ट्राइक” और 2019 में पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान के बालाकोट में किया गया एयरस्ट्राइक, इन दो सैन्य कार्रवाइयों को सत्ताधारी दल ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और राष्ट्रवादी तेज़-तर्रार छवि के प्रमाण के रूप में पेश किया। चुनावी रैलियों से लेकर टीवी डिबेट तक, इन हमलों का बार-बार उल्लेख किया गया। स्वयं उच्च पदस्थ नेताओं ने विपक्ष पर कटाक्ष करते हुए कहा कि हमने घर में घुसकर आतंकियों को मारा” और जो इसपर सवाल उठाए वो राष्ट्रहित के खिलाफ हैं। इससे सेना की कार्रवाई को राजनीतिक वैभव के साथ जोड़कर देखा गया। कई रक्षा विशेषज्ञों एवं पूर्व सैन्य अधिकारियों ने ऐसी बयानबाज़ी पर चिंता जताई कि सैन्य अभियानों का राजनीतिक श्रेय लेना परंपरागत लोकतांत्रिक मर्यादा के विरुद्ध है, क्योंकि आम तौर पर सेनाओं को गैर-राजनीतिक माना जाता है। फिर भी, 2019 के चुनाव में सर्जिकल स्ट्राइक एक मुख्य मुद्दा बनी और 2024 में भी राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रसंगों को भुनाने की प्रवृत्ति जारी रही।
  • सैन्य पर्वों/विजयों का सार्वजनिक अनुकरण: पहले जहां विजय दिवस या केन्द्रीय सैन्य दिवस सीमित दायरे में मनाए जाते थे, वहीं अब सरकार ने जनता को भी इनसे जोड़ने की कोशिश की। उदाहरणस्वरूप, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने 29 सितंबर (सर्जिकल स्ट्राइक की वर्षगांठ) को शिक्षण संस्थानों में सर्जिकल स्ट्राइक दिवस” मनाने का परिपत्र जारी किया था, ताकि छात्र सैन्य कारनामों से प्रेरित हों। इसी तरह कारगिल विजय दिवस, सेना दिवस आदि पर बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित किए जाने लगे। यह कदम मुंजे के उस विचार से मेल खाता है जिसमें युवा पीढ़ी को अर्धसैन्य प्रशिक्षण और राष्ट्रभक्ति के सेनानी-प्रकार उत्साह से लैस करने की बात थी।
  • अग्निपथ’ सैन्य भर्ती योजना: 2022 में शुरू की गई इस नई योजना के तहत बड़ी संख्या में युवाओं को 4 वर्ष के अल्पावधि अनुबंध पर सशस्त्र बलों में भर्ती किया जा रहा है। सरकार ने तर्क दिया कि यह राष्ट्र की युवा शक्ति को सैन्य अनुशासन व कौशल से जोड़ने का प्रयास है, जिससे भविष्य में एक प्रशिक्षित सैनिक-समाज तैयार होगा। आलोचकों ने कहा कि यह सैन्यीकरण का एक रूप है और बेरोज़गार युवाओं को अस्थायी सैनिक बना कर राज्य अपने हित में उपयोग करेगा। बहरहाल, अग्निवीर” बनकर देशसेवा करना भी राष्ट्रीय गौरव के एक नए ढाँचे के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार नीति-निर्माण में भी समाज के सैन्यीकरण का सिद्धांत दिखाई देता है।
  • शक्ति-प्रदर्शन के प्रतीक: बड़े पैमाने पर हथियार प्रणालियों की परेड, नए लड़ाकू विमानों के अधिग्रहण पर सार्वजनिक उत्सव (जैसे राफेल विमानों का पारंपरिक पूजा के साथ स्वागत), सीमा पर दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देने की घोषणाएँ – ये सब राजनीतिक वक्तव्य और दृश्य-प्रदर्शन का हिस्सा बन चुके हैं। उदाहरण के तौर पर, एक प्रमुख नेता का बयान कि हमारी सेना अगर सीमा पार करेगी तो दुनिया देखेगी” आदि, लगातार समाचारों की सुर्खियाँ बनती हैं। यह सत्ता प्रतिष्ठान की मजबूत नेता, मजबूत देश’ वाली छवि बनाता है, जो कि फासीवादी नेताओं (मुसोलिनी/हिटलर) के व्यक्तित्व-पूजन से मेल खाती है।

ऊपर के मामलों में सैन्य साहस और शक्ति को राष्ट्रीय गर्व के साथ जोड़कर राजनीतिक पूंजी के रूप में उपयोग किया गया है। बी.एस. मुंजे द्वारा स्थापित भोंसला मिलिटरी स्कूल और आरएसएस की दैनिक शाखाओं में भी इसी सैन्य अनुशासन का मॉडल दिखता था – फर्क बस यह है कि आज राज्य स्वयं इसे बढ़ावा दे रहा है। फासीवादी प्रवृत्ति के अनुरूप, राज्यसत्ता जनता में यह भावना भर रही है कि “हम एक संघर्षरत वीर राष्ट्र हैं” और इस नैरेटिव का चुनावी एवं सामाजिक समर्थन बटोरने में इस्तेमाल किया जा रहा है।

असहमति के प्रति असहिष्णुता

मुसोलिनी के फासीवाद में राजनीतिक असहमति के लिए कोई जगह नहीं थी – विरोधियों को या तो चुप करा दिया जाता था, जेल में डाल दिया जाता था या समाप्त कर दिया जाता था। लोकतांत्रिक देशों में वैसे तो विपक्ष एवं आलोचना को स्थान मिलना चाहिए, परंतु भारत में पिछले कुछ समय से विरोध के प्रति सहनशीलता में कमी की प्रवृत्ति बढ़ी है। सरकार या उसकी नीतियों का विरोध करने वालों को कभी देशविरोधी”, टुकड़े-टुकड़े गैंग” तो कभी खालिस्तानी/नक्सली साज़िशकर्ता” के तंज झेलने पड़ते हैं। 2024-25 की राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां असहमति व्यक्त करने वालों पर दमनकारी कार्रवाई की गई या उनके विचारों को राष्ट्र-विरोधी करार दिया गया।

विरोध एवं आलोचना को ‘राष्ट्र-विरोध’ कहना

  • प्रदर्शनकारियों पर कठोर कार्रवाई: नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ 2019-20 में हुए देशव्यापी आंदोलनों और 2020-21 के किसान आंदोलन के दौरान देखा गया कि सरकार ने आलोचना सुनने की बजाय पहले तो आंदोलनों को बदनाम करने की कोशिश की। सीएए विरोधियों को कुछ सत्तारूढ़ नेताओं ने टुकड़े-टुकड़े गैंग” (देश तोड़ने वाला गिरोह) और पाकिस्तान समर्थक” कहा, वहीं किसान प्रदर्शनकारियों को खालिस्तान समर्थक, राजनीतिक तौर पर भड़काए गए लोग करार दिया गया। हिंसा की छिटपुट घटनाओं को आधार बनाकर संपूर्ण आंदोलन को राष्ट्र-विरोधी रंग देने की कोशिश हुई। इसके बाद पुलिस कार्रवाई, इंटरनेट बंद, नेताओं की गिरफ्तारी जैसी कठोर कदम उठाए गए। उत्तर प्रदेश और अन्य कुछ राज्यों में सीएए विरोध के दौरान बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया, कई जगह तोड़फोड़/आगजनी के आरोप में बिना पर्याप्त सबूत लोगों की संपत्तियों पर बुलडोज़र चलाने जैसी सज़ाएं दी गईं – जो न्यायिक प्रक्रिया के बाहर दंड देने का उदाहरण है।
  • राजद्रोह व आतंकवाद कानून का इस्तेमाल: सरकार की आलोचना करने वाले कार्यकर्ताओं, छात्रों और पत्रकारों पर भी कठोर धाराएँ लगाई गईं। ब्रिटिश-कालीन राजद्रोह क़ानून (IPC की धारा 124A) का इस्तेमाल 2014 के बाद तेजी से बढ़ा, हालाँकि 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी εφαρμοना पर रोक लगाकर समीक्षा आदेशित की। इसके स्थान पर 2023 में लाए गए नए विधेयक (भारतीय न्याय संहिता, 2023) में भी सरकार के विरुद्ध विद्रोह या राष्ट्र की एकता को क्षति” पहुँचाने वाले कृत्यों को अपराध बनाया गया है, जो लगभग राजद्रोह की परिभाषा जैसा ही व्यापक है। UAPA जैसे कठोर आतंकवाद-निरोधक कानूनों का प्रयोग शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों और असहमति जताने वालों पर भी हुआ है। उदाहरण के तौर पर, फरवरी 2021 में जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि को एक ऑनलाइन दस्तावेज़ (प्रदर्शन से संबंधित टूलकिट) साझा करने मात्र के आरोप में राजद्रोह व UAPA के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था, क्योंकि उस दस्तावेज़ को सरकार ने “विदेशी साज़िश” से जोड़ दिया था। इसी प्रकार भीमा-कोरेगांव केस (2018) में कई मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ताओं को अब तक बिना मुकदमे के जेल में रखा गया है, उन पर सरकार ने शहरी नक्सल होने का आरोप लगाया। इन मामलों में कानूनी हथियारों का प्रयोग विरोध की आवाज दबाने हेतु होता दिखा है।
  • देशद्रोही’ बताकर कलंकित करना: हाल के वर्षों में सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा असहमति के स्वर को कलंकित करने के लिए भाषा का आक्रमक उपयोग हुआ है। एक कुख्यात उदाहरण 2020 में केंद्रीय मंत्री द्वारा चुनावी रैली में लगाया गया नारा था – देश के गद्दारों को, गोली मारो … को”, जिसे भीड़ ने पूरा किया। यह सीधा हिंसा का आह्वान था उन भारतीय नागरिकों के खिलाफ जो विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। हालांकि बाद में चुनाव आयोग ने ऐसे नारों पर आपत्ति जताई, परंतु यह घटना दिखाती है कि किस तरह उच्च स्तर पर भी विरोधियों को गद्दार” कहकर उनकी देशभक्ति सवालों के घेरे में डाली जाती है। विपक्षी दलों के नेताओं को भी अक्सर पाकिस्तानी एजेंट, आतंकी-हमदर्द आदि अपशब्दों से नवाजा गया है, खासकर जब वे सरकार से कठिन सवाल पूछते हैं। इसका असर यह हुआ है कि आम जनता में विभाजन गहरा हुआ – एक पक्ष सरकार की हर कार्रवाई को राष्ट्रहित मानकर समर्थन करता है, जबकि असहमति जताने वालों को शक की निगाह से देखा जाने लगा है।
  • शिक्षा व विमर्श में विरोध के प्रति रवैया: असहिष्णुता का प्रभाव शैक्षणिक और सांस्कृतिक विमर्श पर भी पड़ा है। इतिहास के पाठ्यक्रमों से ऐसे अध्याय हटा दिए गए हैं जिनमें जनता के प्रतिरोध या जनांदोलनों की सकारात्मक भूमिका बताई गई थी। एनसीईआरटी के पाठ्यपुस्तक संशोधनों (2020-23) में जहाँ मुगल इतिहास और गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध जैसे तथ्य हटे, वहीं आधुनिक भारत में हुए जन-आंदोलनों” पर भी पाठ कम कर दिए गए (Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News)। इससे आगामी पीढ़ी को विरोध या असहमति की वैधता के बारे में कम जानकारी मिलेगी। विश्वविद्यालय परिसरों में भी परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि छात्र संघ चुनाव, सेमिनार, फिल्म प्रदर्शन आदि गतिविधियों पर प्रशासन द्वारा रोक या सेंसरशिप लगाई गई अगर वे सत्ताधारियों की विचारधारा के विपरीत हों। उदाहरण के लिए, 2023 में बीबीसी द्वारा प्रधानमंत्री पर बनाई डॉक्यूमेंट्री की कैंपस स्क्रीनिंग कोशिशों को कई विश्वविद्यालयों में प्रशासन ने बिजली काटकर या पुलिस बुलाकर टाला। यह वातावरण उसी फासीवादी असहिष्णुता की याद दिलाता है जहां केवल एकमत को अनुमति होती है और अलग राय को “राष्ट्र-विरोधी” कहकर हतोत्साहित किया जाता है।

संक्षेप में, भारतीय लोकतंत्र में विरोध की स्वीकृति कमजोर पड़ती दिख रही है। ये उदाहरण बताते हैं कि असहमति के प्रति सहनशीलता में आई कमी कैसे बी.एस. मुंजे/मुसोलिनी शैली की प्रवृत्ति से साम्य रखती है – जहाँ राज्य अथवा बहुसंख्यक विचारधारा को चुनौती देना देशद्रोह माना जाता है। यह प्रवृत्ति संवैधानिक मूल्यों जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए चुनौती बनकर उभरी है।

मीडिया एवं सांस्कृतिक संस्थानों पर नियंत्रण

फासीवादी सरकारों ने अपने प्रचार को बेलगाम चलाने के लिए मीडिया, शिक्षा और संस्कृति पर कड़ा नियंत्रण रखा था। इटली के फासीवाद में प्रेस सिर्फ सरकार का गुणगान करती थी और स्कूल-कॉलेजों में आधिकारिक विचारधारा का ही पाठ पढ़ाया जाता था। वर्तमान भारत में पूरी तस्वीर भले ही वैसी नहीं है, लेकिन कई सूचक इस ओर इशारा करते हैं कि मुख्यधारा मीडिया और शैक्षणिक-सांस्कृतिक संस्थानों पर एकतरफ़ा वैचारिक नियंत्रण बढ़ा है। 2024 तक आते-आते स्वतंत्र मीडिया संस्थानों की संख्या कम हो गई है, और शैक्षणिक पाठ्यक्रम व सांस्कृतिक विमर्श में सत्ताधारी विचारधारा का हस्तक्षेप बढ़ा है।

मीडिया का पक्षपात और दमन

  • प्रमुख मीडिया हाउस का पक्षपात: आज भारत के अधिकतर बड़े समाचार चैनल और अख़बार सरकार के पक्ष में झुके हुए दिखाई देते हैं। शाम की टीवी बहसों से लेकर अखबार की सुर्खियों तक, अक्सर सरकारी उपलब्धियों का बखान होता है जबकि विपक्ष या नागरिक समाज की आलोचनाओं को उतनी तवज्जो नहीं दी जाती। आलोचकों ने ऐसे मीडिया को व्यंग्य में गोदी मीडिया” (गोद में बैठा मीडिया) का नाम दिया है, implying कि ये सत्ता की गोद में बैठे हैं। उदाहरणस्वरूप, आर्थिक घोटालों या सरकारी नाकामियों पर खोजी रिपोर्टिंग बहुत कम देखने को मिली, वहीं सरकारी योजनाओं के गुणगान वाले विज्ञापन-सरीखे कार्यक्रम अधिक दिखे। इसके अलावा कुछ समाचार चैनलों पर खुलकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाले डिबेट (हिंदू बनाम मुस्लिम राष्ट्रभक्ति की परीक्षा) चलाए गए, जिससे सत्तारूढ़ दल के ध्रुवीकरण एजेंडे को ही बल मिला।
  • स्वतंत्र आवाज़ों को दबाना: जिन मुट्ठीभर मीडिया संस्थानों ने सरकार की आलोचना जारी रखी, उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष दबाव का सामना करना पड़ा। एनडीटीवी जैसे पहले अपेक्षाकृत निष्पक्ष माने जाने वाले समाचार चैनल का 2022 में देश के एक बड़े उद्योगपति (सरकार के करीब माने जाने वाले) द्वारा अधिग्रहण कर लिया जाना एक उदाहरण है। इसके बाद चैनल की संपादकीय स्वतंत्रता पर सवाल उठे और कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने इस्तीफा दे दिया। अंतरराष्ट्रीय प्रसारक BBC ने जब 2002 के गुजरात दंगों और वर्तमान प्रधानमंत्री से जुड़े विषय पर एक डॉक्यूमेंट्री 2023 में प्रसारित की, तो भारत में न सिर्फ उसे ऑनलाइन प्रतिबंधित किया गया बल्कि बीबीसी के दिल्ली व मुंबई कार्यालयों पर कर-विभाग के छापे भी पड़े – इसे व्यापक तौर पर प्रेस पर दबाव बनाने की कार्रवाई माना गया। परिणामस्वरूप, विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग लगातार गिर रही है (2023 में 180 देशों में भारत का स्थान 161वां बताया गया)। यह दर्शाता है कि अंतरराष्ट्रीय मानकों से भारत में मीडिया की स्वतंत्रता में काफी कमी आई है।
  • सोशल मीडिया और इंटरनेट नियंत्रण: परंपरागत मीडिया के अलावा सरकार ने डिजिटल मीडिया पर पकड़ मजबूत करने हेतु नए आईटी नियम बनाए हैं। 2021-2023 के बीच आईटी नियमों में संशोधन कर सरकार को अधिकार दिया गया कि वह फैक्ट-चेक के नाम पर ऐसे ऑनलाइन कंटेंट को हटवा सके जो उसके मुताबिक “फेक न्यूज़” है। आलोचकों ने कहा कि यह प्रावधान सरकार को मनमाने ढंग से आलोचनात्मक समाचार हटाने का उपकरण देता है, जो ऑनलाइन सेंसरशिप जैसा है। इसके अतिरिक्त, भारत दुनिया में सबसे अधिक इंटरनेट शटडाउन करने वाले देशों में से एक बन गया है – 2024 तक कश्मीर से लेकर देश के अन्य हिस्सों में कानून-व्यवस्था का हवाला देकर सैकड़ों बार नेटबंदी की गई, जिससे मीडिया व अभिव्यक्ति प्रभावित हुई। स्पष्ट है कि डिजिटल युग में भी राज्य सत्ता सूचनाओं के प्रवाह पर नियंत्रण रखकर विमर्श को दिशा देने की कोशिश कर रही है।

शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थानों में वैचारिक हस्तक्षेप

  • पाठ्यक्रम में बदलाव और इतिहास का पुनर्लेखन: जैसा कि ऊपर चर्चा हुई, एनसीईआरटी द्वारा स्कूली किताबों में बड़े पैमाने पर संशोधन किए गए। इन बदलावों में खास तौर पर ऐसे अध्याय/पैराग्राफ निकाल दिए गए जो सत्ताधारी विचारधारा के अनुरूप नहीं माने गए – उदाहरण के तौर पर, मुगल साम्राज्य के इतिहास को 12वीं कक्षा की इतिहास की किताब से हटा दिया गया (Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News), गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंध और गांधी की हिंदू-मुस्लिम एकता की कोशिशों से कट्टरपंथियों की नाराज़गी वाले अंश हटा दिए गए (Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News), 2002 के गुजरात दंगों का ज़िक्र और समकालीन भारत के जनांदोलनों पर अध्याय हटा दिए गए (Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News)। बीजेपी नेता इस परिवर्तन को इतिहास का शुद्धिकरण” कहते हैं और दावा करते हैं कि पहले की किताबें वामपंथी प्रभाव में थीं जिसने मुगल शासकों को महिमामंडित किया; अब हटाए गए अध्यायों को वे झूठा इतिहास” बताते हैं (Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News)। उदाहरणतः, बीजेपी प्रवक्ता कपिल मिश्रा ने ट्वीट कर NCERT के कदम की तारीफ में लिखा कि मुगलों की झूठी कहानी हटाना बड़ा निर्णय है – आक्रांताओं को सम्राट बताने की आवश्यकता नहीं” (Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News)। दूसरी ओर, विपक्ष ने इन परिवर्तनों को इतिहास के सांप्रदायिक पुनर्लेखन की संज्ञा दी है (Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News) (Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News)। कुल मिलाकर, शिक्षा जगत का इस्तेमाल एक खास राष्ट्रवादी विमर्श स्थापित करने में हो रहा है, जो मुंजे व अन्य हिंदुत्ववादियों की उस इच्छा के अनुरूप है जिसमें युवाओं को “अपने गौरवशाली (एकपक्षीय) अतीत” का पाठ पढ़ाना था।
  • संस्थानों पर अपने विचारकों की नियुक्ति: राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थान, सांस्कृतिक संगठन और स्वयंसेवी संस्थाओं पर भी सरकार निकट से निगाह रख रही है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR), भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR), फिल्मों का सेंसर बोर्ड, विश्वविद्यालयों के कुलपति जैसे पदों पर ऐसे व्यक्तियों की तैनाती की गई जो सरकार के विचारधारात्मक रुझान से मेल खाते हों। परिणामस्वरूप, कई स्थानों पर वैचारिक विविधता कम हुई है। 2015 में फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (FTII) के अध्यक्ष पद पर एक सत्तारूढ़ दल से संबद्ध व्यक्ति की नियुक्ति का छात्रों ने विरोध किया था – ऐसा विरोध आगे चलकर अन्य संस्थानों में नाम मात्र रह गया क्योंकि विरोध करने पर कार्यवाही होने लगी। उदाहरण के लिए, कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति पर प्रतिबंध जैसा माहौल बना दिया गया; असहमति जताने वाले प्रोफेसरों/शिक्षकों का तबादला या पतन हुआ है, जिससे बाकी लोग भी आत्म-सेंसरशिप अपनाने लगे।
  • संस्कृति और कला पर पकड़: सांस्कृतिक उत्सवों, संग्रहालयों और कला प्रदर्शनों में भी सरकारी हस्तक्षेप बढ़ा है। सरकार ने नेहरू स्मारक संग्रहालय का नाम बदलकर प्रधानमंत्री संग्रहालय कर दिया, जिससे इतिहास की व्याख्या में बदलाव का संकेत मिलता है। फिल्मों/वेब सीरीज़ की सेंसरशिप के मामलों में भी देखा गया कि जिन विषयों से सरकार असहज होती है, उन पर प्रतिबंध या कट लगाने का दबाव बनाया जाता है। कुल मिलाकर एक अनौपचारिक सेंसरशिप का वातावरण बन गया है जहां कलाकार, लेखक और विद्वान सावधानी बरतते हैं कि कहीं उनकी रचना “राष्ट्र-विरोधी” या “अपमानजनक” कहकर न प्रतिबंधित हो जाए।

इन सभी बिंदुओं से स्पष्ट होता है कि सूचना, शिक्षा और संस्कृति पर राज्य या सत्तारूढ़ विचारधारा की पकड़ मजबूत करने के प्रयास जारी हैं। यह ठीक वही रणनीति है जिसका प्रयोग 1930 के दशक में यूरोप के फासीवादियों ने अपनी विचारधारा को स्थायी बनाने के लिए किया था – यानी कि जनता को वैकल्पिक दृष्टिकोण कम से कम मिलने दिए जाएँ और सरकारी नैरेटिव ही राष्ट्र का नैरेटिव बन जाए। बी.एस. मुंजे जैसे हिंदू राष्ट्रवादियों ने उस समय मुसोलिनी के तौर-तरीकों से सबक लेते हुए भारत में ऐसा आधार बनाने का सपना देखा था; आज 2024-25 में अनेक आलोचक मानते हैं कि भारत कुछ हद तक उस दिशा में अग्रसर है।


निष्कर्ष: फासीवादी प्रवृत्तियों की समकालीन झलक

ऊपर किए गए विश्लेषण को संक्षेप में निम्न तालिका के माध्यम से समझा जा सकता है, जिसमें मुसोलिनी/मुंजे के फासीवादी सिद्धांतों और 2024-25 की भारतीय राजनीति के उदाहरणों का तुलनात्मक उल्लेख है:

फासीवादी प्रवृत्ति (मुसोलिनी/मुंजे)2024-25 की भारतीय राजनीति में उदाहरण
उग्र राष्ट्रवाद व “राष्ट्र सर्वोपरि” (राष्ट्र की एकता को सर्वोच्च रखना, बाकी विविधताओं को दबाना)– “Nation First” की राजनीति, विरोधियों को राष्ट्र-विरोधी कहना– एक राष्ट्र, एक चुनाव/कर/भाषा जैसी पहल, ध्वज-यात्राओं का ज़ोर– कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त कर केंद्रीकृत एकता पर बल
सैन्यीकरण और युद्धवाद (समाज का सैन्य अनुशासन में ढलना, आक्रामक शक्ति-प्रदर्शन)– सर्जिकल स्ट्राइक एवं सैनिक कार्यवाहियों का चुनावी प्रचार में महिमामय उल्लेख– स्कूल-कॉलेज में सैन्य विषयक दिन का आयोजन, अग्निपथ जैसी योजना से युवा सैन्यीकरण– रक्षा शक्ति (नए हथियार, परमाणु शक्ति) पर गर्व के नारे
विरोध एवं असहमति के प्रति असहिष्णुता (आलोचना को देशद्रोह बताना, विरोध को कुचलना)– नागरिक आंदोलनों (CAA, किसान आंदोलन) को कुचलने हेतु बल व बदनामी अभियान– सरकार विरोधियों/पत्रकारों पर राजद्रोह, UAPA जैसे मुकदमे ([Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained
मीडिया व संस्थानों पर नियंत्रण (प्रचार तंत्र पर कब्ज़ा, शिक्षा-संस्कृति का एकीकरण)– मुख्यधारा मीडिया का सरकार-समर्थक रूख, प्रोपगैंडा-स्टाइल कवरेज; स्वतंत्र आवाज़ों पर कार्रवाई– प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में गिरावट; BBC प्रकरण जैसे उदाहरण– पाठ्यपुस्तकों से असुविधाजनक तथ्य हटाकर इतिहास का पुनर्लेखन ([Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained

उपरोक्त विश्लेषण और उदाहरणों से जाहिर है कि भारत की समकालीन राजनीति में कुछ रुझान ऐसे हैं जो बी.एस. मुंजे और मुसोलिनी की विचारधारा से मिलती-जुलती प्रवृत्तियों को दर्शाते हैं। संगठित राष्ट्रवाद, सैन्य शक्ति का उत्सव, विरोध के प्रति कठोरता और सूचना के पर्यवेक्षण – ये सभी लक्षण उस ओर इशारा करते हैं। यद्यपि भारत अब भी एक निर्वाचन आधारित लोकतंत्र है जहां विपक्ष मौजूद है और जनता के मत से सरकारें बदल सकती हैं, फिर भी लोकतांत्रिक ढाँचे के भीतर फासीवादी प्रवृत्तियों का उभार चिंतन का विषय है।

यह अध्ययन किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से अधिक एक चेतावनी एवं तुलना प्रस्तुत करने का प्रयास है। इतिहास बताता है कि जब-जब राष्ट्र की रक्षा” के नाम पर विभिन्न अधिकारों का हनन हुआ है या जनभावनाओं” के नाम पर विवेकशील प्रश्नों को दबाया गया है, तब-तब उस देश ने अपने लोकतंत्र को कमजोर होते देखा है। बी.एस. मुंजे द्वारा बोए गए बीज लगभग एक सदी बाद आधुनिक भारतीय राजनीति की मिट्टी में प्रस्फुटित होते दिख रहे हैं – यह अनुरूपता कितनी गहरी है, इसका मूल्यांकन इतिहास ही करेगा। फिलहाल, इन प्रवृत्तियों को पहचानना और समझना ज़रूरी है ताकि भारत अपने संविधान के मूल्यों और जनतांत्रिक ऊर्जा को बनाए रख सके।

संदर्भ स्रोत: उपरोक्त सभी तथ्य विभिन्न विश्वसनीय समाचार रिपोर्ट्स, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों एवं विश्लेषणों पर आधारित हैं। उदाहरणार्थ, मुंजे और मुसोलिनी की मुलाकात व उनके उद्धरणFrontline पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट से लिए गए हैं (When Hindu Mahasabha leader BS Moonje was influenced by Mussolini – जब मुसोलिनी से प्रभावित हुआ था हिंदू महासभा का बड़ा नेता, कहा था- बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठन की जरूरत | Jansatta) (When Hindu Mahasabha leader BS Moonje was influenced by Mussolini – जब मुसोलिनी से प्रभावित हुआ था हिंदू महासभा का बड़ा नेता, कहा था- बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठन की जरूरत | Jansatta)। एनसीईआरटी पाठ्यक्रम बदलाव संबंधी जानकारी Livemint की खबर एवं संबंधित बयानों से ली गई है (Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News) (Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News)। अन्य घटनाओं हेतु समाचार पत्रों, मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्ट इत्यादि का सहारा लिया गया है, जिनके माध्यम से यह चित्रण उभरता है कि 2024-25 में भारतीय राजनीति की कुछ धाराएँ ऐतिहासिक फासीवादी रुझानों से साम्य रखती हैं।

वक़्फ़ बिल (2025) – एक शिक्षाप्रद गाइड

भारत में वक़्फ़ (Waqf) से जुड़े क़ानूनों और विशेषकर 2025 वक़्फ़ संशोधन विधेयक को समझने के लिए यह पुस्तक छात्रों के लिए तैयार की गई है। इस गाइड में वक़्फ़ की मूल अवधारणा से लेकर इतिहास, कानूनी ढांचा, वक़्फ़ बोर्डों की संरचना, प्रमुख अदालती फ़ैसलों तथा 2025 के विधेयक के मुख्य प्रावधानों और प्रभावों पर प्रकाश डाला गया है। जानकारी तटस्थ एवं सूचनात्मक लहज़े में प्रस्तुत की गई है, ताकि पाठक स्वयं तथ्यों को समझकर निष्कर्ष निकाल सकें।

1. वक़्फ़ क्या है? – परिभाषा और धार्मिक महत्व

वक़्फ़ (Waqf) एक इस्लामी परंपरा है जिसमें कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति का स्थायी रूप से परोपकार या धार्मिक उद्देश्यों के लिए दान कर देता है। वक़्फ़ की स्थापना के बाद, उस संपत्ति पर खुद उस व्यक्ति का मालिकाना हक़ नहीं रहता, बल्कि माना जाता है कि वह संपत्ति अल्लाह को समर्पित हो गई है। इसे ईश्वरीय स्वामित्व मानकर समुदाय के लाभ हेतु प्रयुक्त किया जाता है। इस दान को इर्रिवोक़ेबल यानि अपरिवर्तनीय माना जाता है – एक बार संपत्ति वक़्फ़ घोषित हो जाने पर, उसे फिर से निजी स्वामित्व में नहीं लिया जा सकता।

वक़्फ़ संपत्ति का उपयोग सिर्फ़ धार्मिक या जन-कल्याणकारी उद्देश्यों के लिए होना चाहिए, जैसे मस्जिद, मदरसे, कब्रिस्तान, अनाथालय या अस्पताल का संचालन। वक़्फ़ के तहत आने वाली संपत्ति को बेचा या किसी और प्रयोग में नहीं लाया जा सकता है। वक़्फ़ करने वाले व्यक्ति को वाकिफ़ कहते हैं, और वक़्फ़ संपत्ति की देखभाल के लिए एक मुतवल्ली (प्रबंधक या ट्रस्टी) नियुक्त किया जाता है। मुतवल्ली का दायित्व होता है कि वह उस संपत्ति को नियत धार्मिक/परोपकारी उद्देश्य के लिए ईमानदारी से संचालित करे।

धार्मिक दृष्टि से वक़्फ़ को इस्लाम में एक पुन्य कार्य माना गया है – सदक़ा-ए-जारीया, जिसका मतलब है ऐसा दान जो निरंतर लाभ देता रहे। इस्लामी मान्यता अनुसार जब कोई अपनी जायदाद वक़्फ़ करता है तो उसका फल उसे मरने के बाद भी मिलता रहता है, क्योंकि उस संपत्ति से होने वाला भला जारी रहता है। उदाहरण के लिए, अगर किसी ने ज़मीन वक़्फ़ कर उस पर एक अस्पताल बनवाया, तो जब तक अस्पताल से लोगों का इलाज होता रहेगा, वह दानकर्ता को पुण्य मिलता रहेगा।

वक़्फ़ की यही भावना मुस्लिम समाज में इसे काफ़ी महत्व देती है। वक़्फ़ के ज़रिए सामुदायिक जीवन में शिक्षा, स्वास्थ्य, और इबादत की जगहों की व्यवस्था की जाती रही है। भारत में अनेकों प्रसिद्ध इस्लामी इबादतगाहें और संस्थान वक़्फ़ संपत्ति पर चलते हैं। मिसाल के तौर पर, दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद जैसी विशाल मस्जिदें भी वक़्फ़ के तहत आने वाली दान संपत्तियों के माध्यम से बनीं और आज भी समुदाय की सेवा में हैं।

(File:Jama Masjid is the largest mosque in India. Delhi, India..jpg – Wikipedia) चित्र: दिल्ली की जामा मस्जिद, 17वीं सदी में स्थापित एक ऐतिहासिक मस्जिद। ऐसी इबादतगाहें अकसर वक़्फ़ संपत्ति के माध्यम से निर्मित और संचालित होती हैं।

2. भारत में वक़्फ़ का इतिहास – पूर्व-औपनिवेशिक, औपनिवेशिक व स्वतंत्रता-उपरांत काल

भारत में वक़्फ़ की परंपरा का आरंभ मध्यकाल से माना जाता है। दिल्ली सल्तनत (12वीं सदी) के दौर में ही वक़्फ़ का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि मुहम्मद ग़ोरी ने पृथ्वीराज चौहान पर विजय के बाद कुछ गाँव जामा मस्जिद, मुल्तान के नाम वक़्फ़ कर दिए थे। इसके बाद सल्तनतकाल में इल्तुतमिश, मोहम्मद बिन तुग़लक़ और अलाउद्दीन खिलजी जैसे सुल्तानों ने भी मस्जिदों, मकबरों और मदरसों के लिए भूमि वक़्फ़ में दी (The Waqf (Amendment) Act, 2025 – Wikipedia)। मुग़ल काल में वक़्फ़ और फला-फूल गया – सम्राट अकबर, शाहजहाँ आदि ने बड़ी जागीरें धार्मिक संस्थाओं के नाम कीं। उदाहरण के लिए, ताजमहल (आगरा) को उसकी देखभाल के लिए वक़्फ़ संपत्ति से जोड़ा गया था। धीरे-धीरे गावों की आमदनी, जो कि प्रायः हिंदू कृषकों वाले गावं थे, मुसलमान शासकों द्वारा मस्जिद-मदरसों के खर्च हेतु वक़्फ़ कर दी जाती थी।

ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में वक़्फ़ की व्यवस्था को एक नए क़ानूनी ढांचे का सामना करना पड़ा। 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश अदालतों में वक़्फ़ के अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगे। 1894 में प्रिवी कौंसिल (जो उस दौर में सर्वोच्च अदालत थी) में आबुल फ़ता बनाम रसूल मोयी धुर मामले में चार ब्रिटिश न्यायाधीशों ने वक़्फ़ प्रथा को “सबसे ख़राब और हानिकारक क़िस्म की स्थायी बंदोबस्ती” कहकर अवैध ठहराया था। उनका तर्क था कि वक़्फ़ के ज़रिए संपत्ति पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही परिवार/समुदाय के लिए स्थायी रूप से बंद हो जाती है, जिससे संपत्ति का मुक्त प्रवाह रुकता है। ब्रिटिश शासन के इस फ़ैसले से भारतीय मुस्लिम समाज में हलचल मच गई और इसका ज़ोरदार विरोध हुआ। परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने मुसलमान वक़्फ़ वैधता अधिनियम, 1913 (Mussalman Waqf Validating Act, 1913) पारित किया, जिसने वक़्फ़ को फिर से वैधानिक मान्यता दे दी और प्रिवी कौंसिल के निर्णय को प्रभावहीन बना दिया। इस कानून ने सुनिश्चित किया कि वक़्फ़ प्रथा भारत में जारी रहे और इसे कानूनी सरंक्षण मिले।

स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) के बाद भारत सरकार ने वक़्फ़ प्रबंधन को सुव्यवस्थित करने के प्रयास किए। वक़्फ़ अधिनियम, 1954 स्वतंत्र भारत में वक़्फ़ के लिए पहला केंद्रिय कानून था। इस अधिनियम के तहत:

  • राज्यों में वक़्फ़ बोर्ड गठित करने का प्रावधान था।
  • 1964 में एक केंद्रीय वक़्फ़ परिषद (Central Waqf Council) बनाई गई जो देश भर के वक़्फ़ मामलों में समन्वय करे।
  • वक़्फ़ संपत्तियों के सर्वे और रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया निर्धारित की गई।

आगे चलकर वक़्फ़ अधिनियम, 1995 लाया गया जिसने 1954 के कानून को अद्यतन (update) किया और कुछ नए प्रावधान जोड़े। 1995 का अधिनियम वक़्फ़ प्रशासन के लिए व्यापक कानून बना:

  • इसमें वक़्फ़ की परिभाषा स्पष्ट की गई – वक़्फ़ से तात्पर्य किसी व्यक्ति द्वारा किसी चल या अचल संपत्ति का स्थायी इरादा, ऐसा धार्मिक या परोपकारी उद्देश्य के लिए समर्पण जिससे मुस्लिम क़ानून मान्यता देता है”
  • प्रत्येक राज्य में एक राज्य वक़्फ़ बोर्ड बनाना अनिवार्य किया गया (The Waqf (Amendment) Act, 2025 – Wikipedia)।
  • वक़्फ़ परिषद, राज्य बोर्ड, मुख्य कार्यकारी अधिकारी, और मुतवल्ली के कर्तव्य व अधिकार स्पष्ट हुए।
  • वक़्फ़ ट्रिब्यूनल स्थापित किए गए जो वक़्फ़ विवादों को सिविल न्यायालयों के बजाय स्वयं निपटाएंगे। वक़्फ़ ट्रिब्यूनल को सिविल कोर्ट की शक्तियाँ दी गईं और इसके निर्णयों को अंतिम माना गया, ताकि लम्बी अदालती प्रक्रियाओं से वक़्फ़ विवादों का तेज़ निपटारा हो सके।

वर्ष 2013 में वक़्फ़ अधिनियम में संशोधन किए गए ताकि वक़्फ़ प्रबंधन में कुछ व्यावहारिक सुधार लाए जा सकें। 2013 के संशोधनों का उद्देश्य पारदर्शिता बढ़ाना, वक़्फ़ संपत्तियों के बेहतर उपयोग, और महिलाओं के प्रतिनिधित्व जैसे पहलुओं को सुधारना था। बावजूद इसके, समय के साथ महसूस हुआ कि अभी भी वक़्फ़ प्रशासन में कई समस्याएँ बाकी हैं, जैसे भ्रष्टाचार, ज़मीनों पर क़ब्ज़े, कम आमदनी आदि।

2020 के दशक में वक़्फ़ सुधार की चर्चा फिर ज़ोर पकड़ने लगी। कुछ राज्यों में वक़्फ़ बोर्डों द्वारा बड़ी ज़मीनों पर अपने अधिकार के दावे ने विवाद खड़े किए, जिनमें हिंदू मंदिर या अन्य संस्थानों की ज़मीन भी शामिल थी। मीडिया में ऐसे समाचार आने लगे कि वक़्फ़ बोर्ड देश के तीसरे सबसे बड़े ज़मीन-मालिक हैं (रेलवे और रक्षा बलों के बाद)। एक आकलन के अनुसार भारत में वक़्फ़ संपत्तियों की संख्या 8.7-8.8 लाख के करीब है, जिनकी क़ीमत 12 अरब अमेरिकी डॉलर (करीब ₹1 लाख करोड़) आँकी गई है। इतनी बड़ी सम्पदा का सदुपयोग न होना और विवादों में उलझना सरकार और जनता दोनों के लिए चिंता का विषय रहा है।

3. वक़्फ़ संबंधी क़ानूनी पृष्ठभूमि – वक़्फ़ अधिनियम, संशोधन और संवैधानिक प्रावधान

भारत में वक़्फ़ से जुड़े क़ानून Concurrent List यानी समवर्ती सूची का विषय हैं। भारत के संविधान की समवर्ती सूची के प्रविष्टि 28 में धार्मिक और परोपकार संबंधी संस्थाएँ” शामिल हैं। मतलब, केंद्र एवं राज्य – दोनों सरकारें वक़्फ़ व अन्य धार्मिक न्यासों पर कानून बना सकती हैं। अतः वक़्फ़ से जुड़े कानून एक प्रकार से केंद्र द्वारा बनाए जाते हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन राज्यों के ज़रिए होता है।

मुख्य वक़्फ़ कानून एवं संशोधन:

  • मुसलमान वक़्फ़ वैधता अधिनियम, 1913 – जैसा ऊपर बताया, इस ब्रिटिशकालीन कानून ने वक़्फ़ संस्था को औपनिवेशिक न्यायपालिका की आपत्ति के बाद वैधता प्रदान की।
  • वक़्फ़ अधिनियम, 1954 – स्वतंत्र भारत में पहला व्यापक कानून, जिसके तहत वक़्फ़ बोर्डों और परिषद की स्थापना हुई।
  • वक़्फ़ अधिनियम, 1995 – 1954 के कानून को बदलकर नया अधिनियम लाया गया जिसने वक़्फ़ प्रशासन को अधिक केंद्रीकृत और शक्तिशाली बनाया। यह कानून आज़ादी के बाद वक़्फ़ संपत्तियों को मुस्लिम समुदाय के पक्ष में मज़बूत संरक्षण देने के नज़रिए से बना और सिविल अदालतों के हस्तक्षेप को सीमित किया।
  • वक़्फ़ (संशोधन) अधिनियम, 2013 – 1995 अधिनियम में कुछ महत्वपूर्ण संशोधन; उदाहरण के लिए वक़्फ़ रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया आसान बनाना, रिकॉर्ड डिजिटाइज़ करना (WAMSI नामक पोर्टल के माध्यम से), तथा वक़्फ़ बोर्डों में महिलाओं की नियुक्ति संबंधी दिशानिर्देश।
  • वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक, 2025 – वर्तमान में चर्चा में रहा संशोधन कानून, जिस पर यह पुस्तक आगे अध्याय 6 में विस्तृत चर्चा करेगी।

इनके अतिरिक्त कुछ अन्य क़ानूनी बिंदु:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 में प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय को अपने धार्मिक मामलों को प्रबंधित करने की आज़ादी दी गई है। वक़्फ़ बोर्ड मुस्लिम समुदाय की धार्मिक संपत्तियों का प्रबंधन करते हैं, इसलिए वक़्फ़ अधिनियमों की वैधता पर बहस में अनुच्छेद 26 का ज़िक्र आता है
  • वक़्फ़ संपत्ति को निजी संपत्ति नहीं माना जाता, फिर भी अनुच्छेद 300A (किसी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता) के संदर्भ में यह सवाल उठते रहे हैं कि क्या सरकार वक़्फ़ की संपत्तियों पर अत्यधिक नियंत्रण कर रही है या किसी अन्य के स्वामित्व की भूमि को वक़्फ़ घोषित करके मूल मालिक को संपत्ति से वंचित किया जा रहा है।

वक़्फ़ अधिनियम, 1995 के प्रमुख प्रावधान निम्न थे:

  • वक़्फ़ बोर्डों का गठन – हर राज्य में सरकार द्वारा नामित/निर्वाचित सदस्यों से एक बोर्ड बनाना जिसे राज्य के सभी वक़्फ़ देखरेखने हैं (The Waqf (Amendment) Act, 2025 – Wikipedia)।
  • वक़्फ़ सर्वेक्षण – प्रत्येक राज्य में सर्वे कमिश्नर नियुक्त होकर राज्य की वक़्फ़ संपत्तियों का सर्वे करेंगे और उन्हें राजपत्र (gazette) में अधिसूचित किया जाएगा। इस सूचीबद्ध संपत्ति को वक़्फ़ मान लिया जाता है।
  • विवाद निवारण हेतु वक़्फ़ ट्रिब्यूनल – जिसमें एक न्यायिक अधिकारी (जज) और इस्लामी कानून के विशेषज्ञ होते थे, ताकि वक़्फ़ संबंधी मामलों का निष्पक्ष निपटारा हो।
  • सीमित न्यायालय दखल – वक़्फ़ ट्रिब्यूनल के निर्णयों को हाईकोर्ट में विशेष परिस्थितियों में चुनौती के अलावा सामान्य सिविल कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती थी, जिससे वक़्फ़ बोर्डों को काफ़ी स्वायत्तता मिल गई थी।
  • महिला अधिकार – परिवार द्वारा बनाए वक़्फ़ (औलाद के नाम वक़्फ़ – Waqf-alal-aulad) में महिलाएं वंचित न रहें, इसके लिए 2013 संशोधन के बाद प्रावधान आए कि वक़्फ़ करने से पहले परिवार की महिला सदस्यों का अपना कानूनी हिस्सा (विरासत) जरूर मिल जाए।

4. वक़्फ़ बोर्डों की भूमिका और संरचना – संचालन, शक्तियाँ व ज़िम्मेदारियाँ

वक़्फ़ बोर्ड एक प्रकार की सांविधिक संस्था (statutory body) है जो राज्य में वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन और रेगुलेशन के लिए जिम्मेदार होती है। प्रत्येक राज्य, तथा कुछ केंद्रशासित प्रदेशों में, राज्य वक़्फ़ बोर्ड गठित होते हैं। इनके सदस्य सरकार द्वारा नामित या मुस्लिम समुदाय से चुनकर आते हैं:

  • पारंपरिक रूप से, वक़्फ़ बोर्ड में इस्लामी विद्वान, विधि विशेषज्ञ, मुतवल्ली, और मुस्लिम सांसद/विधायक आदि शामिल होते थे, तथा उनमें कम से कम दो महिला सदस्य होने चाहिए।
  • वक़्फ़ बोर्ड का अध्यक्ष (जिन्हें कभी-कभी चेयरमैन कहते हैं) बोर्ड के सदस्यों में से चुना जाता है।
  • केंद्र में एक केंद्रीय वक़्फ़ परिषद (Central Waqf Council) है जिसके अध्यक्ष केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्री होते हैं। यह परिषद राज्यों के वक़्फ़ बोर्डों को मार्गदर्शन और निगरानी प्रदान करती है।

वक़्फ़ बोर्ड की प्रमुख ज़िम्मेदारियाँ:

  • अपने राज्य की सभी वक़्फ़ संपत्तियों का रिकॉर्ड रखना, उनका सर्वेक्षण कराते रहना और नई वक़्फ़ संपत्ति को पंजीकृत करना।
  • वक़्फ़ संपत्तियों से होने वाली आमदनी (जैसे किराया, इत्यादि) को इकट्ठा कर उसे उसी उद्देश्य पर खर्च करवाना, या यदि मुतवल्ली राशि सही से खर्च न करे तो दखल देना।
  • वक़्फ़ संपत्तियों पर अवैध क़ब्ज़ों (encroachment) को हटाने के लिए कार्रवाई करना। कई राज्यों में वक़्फ़ बोर्डों को यह शिकायत रहती है कि उनकी ज़मीनों पर लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया है, और न्यायालय/सरकार से सहयोग की दरकार रहती है।
  • यदि किसी वक़्फ़ संपत्ति का मुतवल्ली अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा, तो उसे पद से हटाना और नए मुतवल्ली की नियुक्ति करना।
  • महत्वपूर्ण वित्तीय मामलों में राज्य सरकार को परामर्श देना, जैसे बड़ी वक़्फ़ संपत्ति को लीज़ पर देना या डेवलप करना आदि।
  • वक़्फ़ संपत्ति के ऑडिट (लेखा-परीक्षा) कराना। नए संशोधनों के अनुसार जिन वक़्फ़ संस्थाओं की सालाना आय ₹1 लाख से अधिक है, उनके खातों का राज्य द्वारा नामित ऑडिटर से ऑडिट अनिवार्य होगा।

वक़्फ़ बोर्डों की संरचना वर्तमान (2025 संशोधन से पहले) में इस प्रकार थी:

  • केंद्रीय वक़्फ़ परिषद में सभी सदस्य मुस्लिम होते थे, जिसमें दो मुस्लिम महिलाएं भी शामिल होती थीं।
  • राज्य वक़्फ़ बोर्ड में भी अध्यक्ष सहित अधिकांश सदस्य मुस्लिम समुदाय से होते थे। कुछ पद आरक्षित थे – जैसे मुस्लिम सांसद/विधायक, बार काउंसिल के मुस्लिम सदस्य आदि। कम-से-कम दो महिला सदस्य (मुस्लिम) होना आवश्यक था।
  • वक़्फ़ बोर्डों के पास अर्ध-न्यायिक शक्तियाँ थीं – धारा 40 (Section 40) के तहत बोर्ड स्वयं किसी संपत्ति को जांचकर वक़्फ़ घोषित कर सकता था, भले ही वह रजिस्टर्ड न हो। इस प्रावधान का कई बार दुरुपयोग या विवादित इस्तेमाल हुआ; कुछ मामलों में आरोप लगे कि वक़्फ़ बोर्डों ने ज़रूरत से ज़्यादा शक्तियाँ इस्तेमाल कर दूसरों की ज़मीन को भी वक़्फ़ सूची में डाल दिया।
  • वक़्फ़ बोर्ड एक कार्यकारी तंत्र के रूप में मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) भी नियुक्त करते हैं जो दिन-प्रतिदिन के प्रशासन का काम संभालते हैं।

यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि वक़्फ़ बोर्ड एक धार्मिक संस्था नहीं, बल्कि एक प्रबंधकीय निकाय है (Waqf Amendment Bill 2025: Waqf Bill now an Act after Presidential assent, ET LegalWorld)। वक़्फ़ खुद में धार्मिक दान है, पर वक़्फ़ बोर्ड सरकार द्वारा बनाए गए प्रशासनिक निकाय हैं जिनका काम व्यवस्थापन करना है। इसीलिए, सरकार समय-समय पर इनके गठन, ढांचे और शक्तियों में संशोधन कर सकती है।

5. वक़्फ़ संपत्तियों से जुड़े प्रमुख अदालती फ़ैसले

वक़्फ़ संपत्तियों को लेकर समय-समय पर कई महत्वपूर्ण न्यायिक फ़ैसले हुए हैं जिन्होंने इस व्यवस्था को प्रभावित किया है। इनमें से कुछ प्रमुख हैं:

  • आबुल फ़ता बनाम रसूल मोयी धुर (Privy Council, 1894): यह ब्रिटिश काल का मामला था जिसमें एक पारिवारिक वक़्फ़ की वैधता पर प्रश्न उठा। प्रिवी कौंसिल ने निर्णय दिया कि वक़्फ़ एक तरह की “स्थायी धरोहर” है जो संपत्ति को हमेशा के लिए बांध देती है और इसे अवैध बताया। इस निर्णय के बाद भारतीय मुसलमानों के दबाव पर 1913 का validating act पारित हुआ जिसने वक़्फ़ को फिर मान्यता दी, लेकिन यह मामला इतिहास में वक़्फ़ पर कानूनी चुनौती के उदाहरण के तौर पर याद किया जाता है।
  • सैयद अली बनाम आंध्र प्रदेश वक़्फ़ बोर्ड (उच्चतम न्यायालय, 1998): यह एक अहम फ़ैसला था जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने वक़्फ़ संपत्ति की परिभाषा को स्पष्ट किया। मामला एक दरगाह की संपत्ति का था कि क्या वह वक़्फ़ मानी जाए या नहीं। उच्चतम न्यायालय ने निचली अदालतों के फ़ैसले को बरक़रार रखते हुए कहा कि यदि संपत्ति को धार्मिक/परोपकारी कार्य हेतु समर्पित किया गया है, तो वह वक़्फ़ है। साथ ही अदालत ने दोहराया कि एक बार वक़्फ़ बना दी गई संपत्ति पर ज़िला प्रशासन या कोर्ट भी पूर्व के किसी गलत फैसले के आधार पर मालिकाना नहीं बदल सकते (res judicata का सिद्धांत लगाते हुए)। इस फ़ैसले से वक़्फ़ बोर्डों का पक्ष मज़बूत हुआ कि ऐतिहासिक धार्मिक संपत्तियाँ वक़्फ़ ही रहेंगी।
  • बाबरी मस्जिद / राम जन्मभूमि मामला (Allahabad HC 2010, SC 2019): अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद भी एक वक़्फ़ संपत्ति के रूप में पंजीकृत थी, जिसका प्रबंधन उत्तर प्रदेश सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के हाथ में था। 1992 में विध्वंस के बाद इस स्थल के मालिकाना हक़ पर लंबा मुकदमा चला। 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ज़मीन को तीन हिस्सों में बांटने का फ़ैसला दिया, जिसमें से एक हिस्सा वक़्फ़ बोर्ड (मुस्लिम पक्ष) को मिला। परंतु उच्चतम न्यायालय ने 2019 में अंतिम फैसला सुनाते हुए पूरी विवादित भूमि राम मंदिर निर्माण के लिए हिंदू पक्ष को दे दी और मुस्लिम पक्ष को अयोध्या में ही वैकल्पिक 5 एकड़ ज़मीन देने का निर्देश दिया। यह फ़ैसला ऐतिहासिक था क्योंकि एक वक़्फ़ संपत्ति (मस्जिद) के स्थान पर मंदिर बनाने का मार्ग प्रशस्त हुआ, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने माना कि 1949 में मस्जिद में मूर्तियाँ रखना और 1992 में मस्जिद ढहाना दोनों गैर-कानूनी थे। इस मामले ने दिखाया कि वक़्फ़ संपत्तियों पर भी मालिकाना विवाद व्यापक सांप्रदायिक रंग ले सकते हैं और अदालती निर्णयों से ही निष्पत्ति होती है।
  • ताजमहल पर वक़्फ़ दावा मामला (इलाहाबाद HC 2017): उत्तर प्रदेश सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने विश्व प्रसिद्ध ताजमहल को वक़्फ़ संपत्ति घोषित करने का दावा किया था, क्योंकि इसे मुगल बादशाह शाहजहाँ ने एक मकबरा (अपनी बेगम मुमताज़ के लिए) के तौर पर बनवाया था। 2017 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पूछा कि क्या कोई प्रामाणिक दस्तावेज या शाहजहाँ का वक़्फ़नामा (दस्तावेज) है जो ताजमहल को वक़्फ़ घोषित करता हो। प्रमाण के अभाव में अदालत ने वक़्फ़ बोर्ड का दावा ख़ारिज कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने भी कहा कि ताजमहल का प्रबंधन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अंतर्गत ही रहेगा, क्योंकि यह राष्ट्रीय धरोहर है। इस प्रकरण से पता चला कि वक़्फ़ बोर्ड ऐतिहासिक धरोहरों पर भी दावे करते रहे हैं, जिनकी कानूनी जाँच अदालत में होती है।
  • हाजी अली दरगाह मामला (बॉम्बे HC 2016): हाजी अली दरगाह मुंबई की एक प्रसिद्ध वक़्फ़ संपत्ति है। वहां महिलाओं के प्रवेश प्रतिबंध पर 2016 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने रोक लगाते हुए लैंगिक समानता का संदेश दिया था। यद्यपि यह फ़ैसला सीधे वक़्फ़ क़ानून से न जुड़कर, दरगाह ट्रस्ट के नियम से जुड़ा था, फिर भी वक़्फ़ प्रबंधन और मूलभूत अधिकारों के टकराव का उदाहरण है।

इनके अलावा वर्तमान में 2025 वक़्फ़ संशोधन अधिनियम भी स्वयं न्यायिक जांच के दायरे में है। असदुद्दीन ओवैसी (एआईएमआईएम) और मोहम्मद जावेद (कांग्रेस सांसद) सहित कई ने इस नये कानून को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है। अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश के तहत सरकार से स्पष्टीकरण मांगा और कहा है कि केस लंबित रहते किसी वक़्फ़ संपत्ति की स्थिति नहीं बदली जाएगी व ‘वक़्फ़ बाय यूज़र’ के मामलों को अभी छेड़ा नहीं जाएगा। साथ ही कोर्ट ने आदेश दिया कि फिलहाल वक़्फ़ बोर्ड में गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति पर रोक रहेगी जब तक अंतिम फैसला न आ जाए। इन अंतरिम कदमों से न्यायालय वक़्फ़ संशोधन के विवादित बिंदुओं पर यथास्थिति बनाए रखना चाहता है।

6. 2025 वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक – प्रमुख प्रावधान, परिवर्तन और प्रभाव

साल 2024-25 में केंद्र सरकार ने वक़्फ़ कानून में कुछ बड़े बदलाव प्रस्तावित किए, जो वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक, 2025 के रूप में सामने आए। यह बिल संसद में व्यापक बहस के बाद मार्च-अप्रैल 2025 में पारित हुआ और अप्रैल 5, 2025 को राष्ट्रपति की मंज़ूरी के साथ क़ानून बन गया। इस संशोधन विधेयक के निम्न मुख्य बिंदु हैं:

  • क़ानून का नया नाम: 1995 के मौजूदा वक़्फ़ अधिनियम का नाम बदलकर ात वक़्फ़ प्रबंधन, सशक्तिकरण, दक्षता व विकास अधिनियम, 1995” रखा गया है। नाम में बदलाव का उद्देश्य कानून के व्यापक उद्देश्यों को प्रतिबिंबित करना है।
  • वक़्फ़ की परिभाषा व स्वरूप में बदलाव: अब वक़्फ़ बनाना केवल औपचारिक घोषणा (डिक्लेरेशन) या वसीयत (Endowment) के माध्यम से ही संभव होगा। एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह है कि यूज़र द्वारा वक़्फ़’ (Waqf by user) की अवधारणा को हटा दिया गया है। पहले प्रथा यह थी कि अगर कोई संपत्ति लम्बे समय से धार्मिक/परोपकारी काम में लगी है, भले लिखित दस्तावेज़ न हों, तो उसे चलती परंपरा के आधार पर वक़्फ़ मान लिया जाता था। संशोधन में इसे समाप्त किया गया है ताकि केवल वही वक़्फ़ मानें जाएं जिनके दस्तावेज़ी प्रमाण मौजूद हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस बिंदु पर चिंता जताते हुए पूछा कि पुराने ढांचे के बिना दस्तावेज़ वाले कितने ही धार्मिक स्थानों का क्या होगा
  • वक़्फ़ दानकर्ता (वाकिफ़) की योग्यता: अब वही व्यक्ति संपत्ति वक़्फ़ कर सकेगा जो कम-से-कम पिछले 5 साल से इस्लाम धर्म को मानने वाला प्रैक्टिसिंग मुस्लिम हो। इसका मतलब यह है कि हाल ही में धर्मांतरण करके आए व्यक्ति तुरंत वक़्फ़ नहीं बना पाएंगे, तथा सुनिश्चित होगा कि वक़्फ़ समुदाय की समझ रखने वाला व्यक्ति ही यह क़दम उठाए। यह प्रावधान पूर्व-2013 कानून जैसा है, क्योंकि 2013 में यह शर्त हट गई थी पर अब फिर जोड़ दी गई है।
  • महिला अधिकारों की रक्षा: बिल में प्रावधान है कि किसी पारिवारिक संपत्ति को वक़्फ़ करने से पहले उस परिवार की महिलाओं को उनका विरासत का अधिकार दिया जाना चाहिए। विशेषकर विधवा, तलाकशुदा महिलाएँ और अनाथों के भरण-पोषण का प्रबंध करने की बात कही गई है, ताकि कोई परिवार अपने सम्पूर्ण संपत्ति वक़्फ़ कर दे और महिलाओं/बच्चों के पास कुछ न बचे – ऐसे हालात से बचा जा सके।
  • ग़ैर-मुस्लिम सदस्यों का समावेश: केंद्रीय वक़्फ़ परिषद (22 सदस्यों वाली) में अब 2 गैर-मुस्लिम सदस्य रखे जा सकते हैं, और राज्य वक़्फ़ बोर्डों (11 सदस्यों वाले) में भी 2 गैर-मुस्लिम शामिल हो सकते हैं। यह समावेशिता (inclusivity) बढ़ाने के तर्क पर किया गया बदलाव है, ताकि तकनीकी या प्रशासनिक योग्यता वाले गैर-मुस्लिम भी बोर्ड में रहकर पारदर्शिता सुनिश्चित करने में मदद करें (Waqf Amendment Bill 2025: Waqf Bill now an Act after Presidential assent, ET LegalWorld) (Waqf Amendment Bill 2025: Waqf Bill now an Act after Presidential assent, ET LegalWorld)। सरकार का कहना है कि ये सदस्य सिर्फ प्रशासनिक कार्य हेतु होंगे और वक़्फ़ के धार्मिक कार्यों में दख़ल नहीं देंगे (Waqf Amendment Bill 2025: Waqf Bill now an Act after Presidential assent, ET LegalWorld)। हालांकि आलोचकों ने इसे मुस्लिम संस्थाओं की स्वायत्तता पर हमला बताया है।
  • वक़्फ़ बोर्ड की संरचना में परिवर्तन: राज्य वक़्फ़ बोर्ड के सदस्यों का चयन अब चुनाव की जगह काफी हद तक राज्य सरकार के नामांकन से होगा। बिल में प्रावधान है कि बोर्ड में विभिन्न मुस्लिम उप-समुदायों (सुन्नी, शिया, बोहरा, अगाखानी, इत्यादि) के प्रतिनिधि होंगे, साथ ही 2 गैर-मुस्लिम नामित होंगे। इससे बोर्ड की संरचना व्यापक बनती है लेकिन राज्य सरकार का नियंत्रण बढ़ता है क्योंकि नामांकन का अधिकार सरकार को मिला है।
  • धारा 40 (Section 40) की समाप्ति: Section 40, जो वक़्फ़ बोर्ड को यह ताकत देती थी कि वह ख़ुद तय कर सके कि कोई संपत्ति वक़्फ़ है या नहीं, उसे हटा दिया गया है। इसका अर्थ है कि अब वक़्फ़ बोर्ड सीधे किसी संपत्ति को वक़्फ़ घोषित नहीं कर पाएंगे; उन्हें कानूनी/दस्तावेज़ी प्रमाण और नियत प्रक्रिया का पालन करना होगा। इससे उन विवादों में कमी आने की उम्मीद है जहां वक़्फ़ बोर्ड के द्वारा निजी/सरकारी भूमियों को अपनी मान लेना कहा जाता था।
  • सरकारी भूमि पर वक़्फ़ दावा: नए विधेयक में यह स्पष्ट किया गया है कि यदि कोई संपत्ति सरकारी भूमि है और उसे गलती से वक़्फ़ में दर्ज कर लिया गया, तो उसे वक़्फ़ रजिस्टर से हटा दिया जाएगा। अर्थात, सरकारी ज़मीनें वक़्फ़ नहीं बन सकतीं। अगर कोई विवाद होगा तो ज़िला कलेक्टर (जिला अधिकारी) यह तय करेगा कि जमीन का मालिकाना किसके पास रहे। यह प्रावधान काफी अहम है क्योंकि कई विवाद ऐसे थे जहां सरकारी एजेंसियों और वक़्फ़ बोर्ड के बीच जमीन को लेकर खींचतान थी। लेकिन आलोचकों को डर है कि इससे सरकारी अफ़सरों को अत्यधिक शक्ति मिल जाएगी कि वो वक़्फ़ संपत्तियों को भी “सरकारी” बताकर अपने कब्ज़े में ले लें।
  • सीमित दावों की समय-सीमा (Limitation Act का लागू होना): वक़्फ़ अधिनियम की धारा 107 हटाई गई है, जिससे अब वक़्फ़ संपत्तियों पर सामान्य Limitation Act, 1963 लागू होगा। पहले वक़्फ़ बोर्ड पुरानी से पुरानी (यहाँ तक कि कई पीढ़ी पहले खोई हुई) वक़्फ़ संपत्ति पर भी दावा कर सकता था क्योंकि वक़्फ़ को “निरंतर चलने वाला” माना जाता था, उस पर सीमा क़ानून लागू नहीं था। लेकिन अब अगर कोई व्यक्ति 12 साल से ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके बैठा है तो वक़्फ़ बोर्ड का उस पर दावा सीमित हो जाएगा। आलोचक इसे वक़्फ़ संपत्तियों पर क़ाबिज़ लोगों को वैधता देने जैसा कदम बता रहे हैं, जिससे वक़्फ़ बोर्ड की पुरानी जमीनें वापिस पाना मुश्किल हो जाएगा। सरकार का कहना है कि ये बदलाव लाकर गैर-वाजिब लम्बित मुकदमों को रोका जा सकेगा और एक निश्चितता आएगी कि कितने पुराने मामलों तक ही दावा हो सकता है।
  • डिजिटलीकरण और पारदर्शिता: सरकार ने ज़ोर देकर कहा है कि वक़्फ़ प्रबंधन में टेक्नोलॉजी का उपयोग बढ़ाया जाएगा। सभी संपत्तियों की डिजिटल रिकॉर्डिंग (WAMSI पोर्टल) अनिवार्य है और इसे समय-समय पर अपडेट किया जाएगा। पारदर्शिता बढ़ाने के लिए केंद्रीय सरकार को कुछ अतिरिक्त अधिकार दिए गए हैं, जैसे वक़्फ़ संपत्तियों के पंजीकरण, लेखा और ऑडिट संबंधी नियम बनाने का अधिकार।

इन प्रावधानों पर मिली-जुली प्रतिक्रिया आई है:

  • सरकार का पक्ष: सरकार (विशेषकर गृह मंत्री श्री अमित शाह) ने संसद में कहा कि ये सुधार पारदर्शिता व जवाबदेही लाने के लिए हैं। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि धर्म में हस्तक्षेप नहीं हो रहा बल्कि केवल प्रशासनिक सुधार हो रहे हैं (Waqf Amendment Bill 2025: Waqf Bill now an Act after Presidential assent, ET LegalWorld) (Waqf Amendment Bill 2025: Waqf Bill now an Act after Presidential assent, ET LegalWorld)। उनके मुताबिक वक़्फ़ बोर्ड धार्मिक संस्थाएं नहीं बल्कि प्रशासनिक संस्था हैं, और वहां सभी धर्मों के लोग प्रशासनिक भूमिकाओं में रह सकते हैं (Waqf Amendment Bill 2025: Waqf Bill now an Act after Presidential assent, ET LegalWorld)। सरकार ने यह भी तर्क दिया कि पूर्ववर्ती वक़्फ़ कानूनों की खामियों से भूमि माफ़िया को लाभ मिला और ग़रीब मुस्लिम समुदाय को भला नहीं हुआ। नई बदलाव गरीब मुसलमानों की भलाई (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य में वक़्फ़ संपत्ति का प्रयोग) के लिए और “राष्ट्रहित” में आवश्यक हैं।
  • विपक्ष व आलोचना: कई विपक्षी दलों (कांग्रेस, आरजेडी, टीएमसी, एआईएमआईएम आदि) ने इस बिल को असंवैधानिक व अल्पसंख्यक विरोधी बताया। उनका कहना है कि मज़हबी मामलों में सरकारी दख़ल बढ़ाया जा रहा है। खासतौर पर गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति और ‘वक़्फ़ बाय यूज़र’ का ख़ात्मा – इन दो बातों पर आपत्ति है कि यह मुस्लिम समुदाय की धार्मिक स्वायत्तता और परंपराओं के खिलाफ़ है। कुछ आलोचकों ने इसे 2019 के CAA कानून जैसे भय पैदा करने वाला कदम बताया, जो ज़मीन पर नियंत्रण करने के लिए लाया गया है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) ने इसे असंवैधानिक एवं अलोकतांत्रिक कहकर देशभर में विरोध दर्ज कराया। बिहार, बंगाल, तमिलनाडु आदि कई राज्यों में विरोध प्रदर्शन हुए, कुछ स्थानों पर हिंसक घटनाएँ भी हुईं। तमिलनाडु विधानसभा ने तो इस विधेयक के ख़िलाफ़ एक प्रस्ताव भी पारित किया और राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही। विपक्षी तर्क ये भी है कि यह कानून संघीय ढाँचे के खिलाफ़ है क्योंकि वक़्फ़ राज्य सूची जैसा व्यवहार पाते थे और अब केंद्र का हस्तक्षेप बढ़ गया है।
  • मुस्लिम समाज के भीतर मतभेद: सभी मुस्लिम संगठन इस बिल का विरोध नहीं कर रहे। उदाहरण के लिए, दरगाह अजमेर शरीफ़ के दीवान के परिवार से जुड़े कुछ सदस्यों ने बिल का समर्थन किया यह कहते हुए कि वक़्फ़ बोर्ड में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार व कुप्रबंधन रहा है और उसमें सुधार ज़रूरी है। वहीं दूसरी ओर AIMPLB, कुछ उलेमा, व वक़्फ़ बोर्डों से जुड़े लोग विरोध में हैं। केरल के एक कैथोलिक चर्च समूह ने भी इस्लामी वक़्फ़ सुधार का स्वागत किया, क्योंकि उनका मानना है कि इससे धार्मिक न्यासों के प्रबंधन में पारदर्शिता बढ़ेगी – शायद भविष्य में उनके अपने चर्च और ट्रस्ट के लिए भी ये उदाहरण हो।

विधेयक के राजनीतिक पहलू भी हैं – चूंकि 2024 के आम चुनाव में सत्ताधारी दल ने इसे एक सुधार के रूप में प्रस्तुत किया था और कुछ विपक्षी दलों ने इसे मुस्लिमों के अधिकार छीनने की कोशिश बताया, इसलिए इसके पारित होने के बाद बिहार, बंगाल जैसे राज्यों (जहाँ मुस्लिम आबादी अहम है) में इसे लेकर राजनीति गर्म रही। लोकसभा में यह बिल बहुमत से पास हुआ पर 232 सांसदों ने विरोध में वोट किया, जो हाल के वर्षों में विपक्ष के बड़े जुटान को दर्शाता है। राज्यसभा में भी लम्बी बहस चली और आखिरकार 128 के मुकाबले 95 वोट से पारित हुआ (Waqf Amendment Bill 2025: Waqf Bill now an Act after Presidential assent, ET LegalWorld)। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि संसद में भी मत-विभाजन सांप्रदायिक और वैचारिक आधार पर हुआ।

(image) चित्र: वक़्फ़ संशोधन बिल 2025 का विरोध करते लोग। कई शहरों में मुस्लिम संगठनों ने इस बिल को “काला क़ानून” कहते हुए धरने-प्रदर्शन किए।

7. वक़्फ़ प्रणाली और संबंधित क़ानूनों का मुस्लिम व हिंदू – दोनों पर प्रभाव

वक़्फ़ से जुड़े क़ानूनों का प्रभाव केवल मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक समाज एवं भूमि-प्रशासन पर भी पड़ता है। इस अध्याय में हम देखते हैं कि वक़्फ़ प्रणाली किस प्रकार मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम (विशेषकर हिंदू) समुदाय को प्रभावित करती रही है:

(क) मुस्लिम समुदाय पर प्रभाव:

  • वक़्फ़ संपत्तियाँ मुख्यतः मुस्लिम समुदाय की धार्मिक, शैक्षणिक और सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के लिए हैं। यदि इनका सही प्रबंधन हो तो मुस्लिम समाज में स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, रोज़गार आदि के अवसर बढ़ सकते हैं। सच्चर कमेटी (2006) ने बताया था कि देश के तीसरे सबसे बड़े भू-स्वामी होने के बावजूद वक़्फ़ संपत्तियों से होने वाली सालाना आमदनी मात्र ~₹163 करोड़ थी, जबकि उनकी संपत्ति मूल्य लाखों करोड़ का है। कमेटी का अनुमान था कि अगर ठीक से प्रबंधन हो तो यह आय ₹12,000 करोड़ सालाना तक हो सकती है। आय कम होने का मतलब है कि मुस्लिम समाज को वक़्फ़ से उतना लाभ नहीं मिल पा रहा जितना संभावित था। इसीलिए सुधारों की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी।
  • बहुत से गरीब या पिछड़े मुसलमान, खासकर पासमांदा (पिछड़ा वर्ग) समुदाय, वक़्फ़ की आय से चलने वाले कल्याण कार्यक्रमों पर निर्भर होते हैं। अगर वक़्फ़ बोर्ड की संपत्तियाँ अवैध कब्ज़ों या भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ेंगी, तो ज़ाहिर है इन तबकों का नुक़सान होगा। इसलिए पारदर्शिता, डिजिटल रिकॉर्ड, ऑडिट जैसे सुधारों का उद्देश्य इन्हें फायदा पहुंचाना बताया गया है।
  • दूसरी ओर, मुस्लिम समुदाय के भीतर कुछ आशंकाएँ भी हैं। जैसे अगर वक़्फ़ बोर्डों में गैर-मुस्लिम सदस्य होंगे, तो क्या धार्मिक नज़रिए से फैसलों पर प्रभाव पड़ेगा? हालांकि सरकार कहती है कि ऐसा नहीं होगा (Waqf Amendment Bill 2025: Waqf Bill now an Act after Presidential assent, ET LegalWorld), लेकिन यह बहस का विषय रहा है कि क्या यह समुदाय के धार्मिक अधिकारों में दखल है या महज़ प्रबंध में।
  • ‘वक़्फ़ बाय यूज़र’ हटाने का सबसे बड़ा प्रभाव मुस्लिमों पर ही होगा क्योंकि कई पुरानी मस्जिदें, ईदगाह, कब्रिस्तान आदि शायद पूरी तरह से रजिस्टर्ड नहीं थे पर पीढ़ियों से प्रचलन में थे। अब उन्हें अपने रिकॉर्ड दुरुस्त कराने होंगे वरना वे वक़्फ़ सूची से बाहर हो सकते हैं।
  • सकारात्मक पक्ष यह है कि अब महिलाओं के अधिकार सुरक्षित करने की बात स्पष्ट आ गई है। महिलाएं जिनको पूर्व में परिवार के वक़्फ़ में अनदेखा किया जाता था, नए कानून के अनुसार पहले उनका हिस्सा निकालना जरूरी है। इससे मुस्लिम महिलाओं के हित सधेगा और कोई परिवार उन पर अन्याय करके सारा माल वक़्फ़ न कर सकेगा।
  • वक़्फ़ कानून राजनीतिक रूप से भी मुस्लिम समुदाय को प्रभावित करते हैं। अगर कानून को धार्मिक स्वतंत्रता के हनन की तरह पेश किया जाए, तो इससे समुदाय में असुरक्षा की भावना फैलती है। वहीं अगर इसे सुधार की तरह देखा जाए तो समुदाय में विश्वास आता है कि उनके अपने संस्थानों में पारदर्शिता आएगी। वर्तमान विधेयक पर मुस्लिम मत-बंटा हुआ है, जिससे समुदाय के भीतर भी मतभेद दिख रहे हैं।

(ख) हिंदू व अन्य समुदायों पर प्रभाव:

  • कई हिंदू (एवं अन्य धर्मों के) ज़मीन-मालिक या मंदिर ट्रस्ट यह शिकायत करते रहे हैं कि वक़्फ़ बोर्डों ने उनकी ज़मीनों को वक़्फ़ घोषित कर दिया या उन पर दावा ठोक दिया, जबकि वे पीढ़ियों से गैर-मुस्लिम स्वामित्व/प्रबंधन में थीं। उदाहरणस्वरूप, कुछ साल पहले तमिलनाडु में वक़्फ़ बोर्ड ने एक प्राचीन हिंदू मंदिर की 1500 साल पुरानी ज़मीन को अपनी बताया, जिस पर काफ़ी विवाद हुआ। ऐसे मामलों से हिंदू समुदाय में वक़्फ़ बोर्ड की शक्तियों को लेकर चिंता रही है। 2025 के संशोधनों में धारा 40 हटाकर और सरकारी भूमि को वक़्फ़ न मानने का प्रावधान लाकर इस चिंता को दूर करने का प्रयास हुआ है।
  • हिंदू समुदाय के लिए एक और अप्रत्यक्ष प्रभाव है – तुलना का सिद्धांत। अक्सर यह सवाल उठता है कि अगर मुस्लिम वक़्फ़ बोर्ड हैं तो हिंदू मंदिरों के प्रबंधन के लिए भी अलग बोर्ड या व्यवस्था क्यों न हो। वास्तव में कई राज्यों में हिंदू मंदिर सरकारी नियंत्रण (Endowments Departments) में हैं, जिससे कुछ हिंदू असंतुष्ट हैं। वक़्फ़ सुधार की बहस ने हिंदू धार्मिक न्यासों के प्रबंधन पर भी ध्यान खींचा है, हालांकि वह भिन्न विषय है।
  • वक़्फ़ बोर्डों के अधिकार क्षेत्र में अक्सर मिश्रित आबादी वाले इलाके, गाँव आदि आते हैं। अगर वक़्फ़ की भूमि गांव के अंदर है तो उसके आस-पास के ग़ैर-मुस्लिम लोग भी प्रभावित होते हैं (जैसे यदि वक़्फ़ भूमि पर मुकदमा चले, निर्माण रुके, तो पड़ोसियों को असुविधा)। अतः वक़्फ़ विवाद सामुदायिक सौहार्द्र को प्रभावित कर सकते हैं। एक बड़ा उदाहरण बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि का था जिसने हिंदू-मुस्लिम संबंधों को लंबे समय तक प्रभावित किया।
  • प्रशासनिक नज़रिए से, ज़िला कलेक्टरों को वक़्फ़ विवादों में अधिकार देने का मतलब है कि अब लोक प्रशासन सीधे इनमें दखल देगा। इससे दोनों समुदायों को भरोसा होना चाहिए कि सरकारी अधिकारी निष्पक्षता से फैसला करेंगे। हिंदू पक्ष को आशा है कि इससे वक़्फ़ बोर्डों द्वारा “मनमानी” पर रोक लगेगी, और मुस्लिम पक्ष चाहता है कि अधिकारी उनके अधिकार का हनन न करें। इस संतुलन का प्रभाव ज़मीनी स्तर पर देखने को मिलेगा।

अंत में, वक़्फ़ प्रणाली को इस तरह समझा जा सकता है कि यह एक पुल की तरह है – एक तरफ़ धार्मिक आस्था और दान की भावना, तो दूसरी तरफ़ क़ानूनी-प्रशासनिक प्रबंधन। सही संतुलन होने पर यह पुल समाज के कमजोर तबकों को मज़बूती देता है, पर संतुलन बिगड़ने पर विवाद और अविश्वास पैदा करता है। 2025 का वक़्फ़ विधेयक इसी संतुलन को दोबारा परिभाषित करने का प्रयास है।


संदर्भ (References): इस पुस्तक में उल्लिखित तथ्य एवं आंकड़े विभिन्न विश्वसनीय स्रोतों से लिए गए हैं, जिनमें सरकारी रिपोर्ट, समाचार पत्र, एवं न्यायालयों से संबंधित दस्तावेज़ शामिल हैं। प्रत्येक तथाकथित महत्वपूर्ण जानकारी के साथ कोष्ठक में स्रोत संकेत दिए गए हैं, जिससे जिज्ञासु पाठक उन स्रोतों को देख सकते हैंआदि. इन सन्दर्भों के माध्यम से यह सुनिश्‍चित किया गया है कि पुस्तक की सामग्री प्रमाणिक और अद्यतित है।