कहानी: “युवी: एक अंतःकरण की मृत्यु”
भाग 1: आगमन और आशा की एक रेखा
मनुष्य मूलतः अच्छा है। यह विचार केवल दार्शनिक रूमानियत नहीं, बल्कि एक अस्तित्वगत सत्य है — जिसे समय, समाज और सत्ता के गालों पर तमाचा लगाता हुआ कोई-कोई जीवित रख पाता है। युवी उन विरलों में से एक था।
छत्तीसगढ़ के एक दूरदराज़ आदिवासी अंचल से आया वह बालक — जिसकी आँखों में न कोई छल था, न कोई आकांक्षा — केवल एक मौन स्वीकृति थी उस जीवन की, जो उसे सौंपा गया था। उसका हृदय इतना निष्कलुष था कि जैसे किसी ऋषि की साधना बिना बोले उसके व्यवहार में ढल गई हो।
जब वह ई.एम.आर.एस. घुघरी जैसे अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल में कक्षा 6वीं में पहुँचा, तो वह केवल एक छात्र नहीं था — वह अपने साथ वह ‘प्राकृतिक नैतिकता’ लेकर आया था, जिसे आज की शिक्षित दुनिया या तो उपहास करती है या संदेह की दृष्टि से देखती है।
उसके सहपाठी उसकी भाषा, वेशभूषा, चाल-ढाल और भोलेपन का मज़ाक उड़ाते। उसकी पीठ पीछे नहीं, मुँह पर हँसा जाता था। लेकिन युवी क्रुद्ध नहीं होता। वह प्रतिकार नहीं करता। उसके भीतर ऐसा कोई यंत्रणातीत अहंकार नहीं था जो अपमान से तिलमिला उठता।
उसके अंग्रेज़ी अध्यापक, जिन्होंने शायद जीवन के किसी मोड़ पर यह मान लिया था कि ‘ज्ञान’ का उद्देश्य केवल रटंत सफलता नहीं, बल्कि आत्मा की अखंडता है — उन्होंने युवी में वह दिव्यता देखी जिसे हम अमूमन तीर्थों में ढूँढते हैं।
उन्होंने कभी युवी के ‘पिछड़ेपन’ को उसके सीखने की सीमा नहीं माना। वे अक्सर कहते —
“मनुष्य का चरित्र ही उसका पाठ्यक्रम है। और जो बालक अपनी संवेदना को सुरक्षित रखे, वह पहले ही शिक्षित है।”
युवी के लिए पढ़ाई एक संघर्ष थी। उसे शब्दों की नहीं, भावनाओं की भाषा आती थी। वह प्रश्नों को याद नहीं करता, उन्हें अनुभव करता। उसकी विफलताएँ दरअसल उसकी ‘अनकंडीशन्ड पवित्रता’ की गवाही थीं — एक ऐसा सत्य जो तर्क से परे था।
जब उसके पिता स्कूल आते, तो कुर्सी नहीं, ज़मीन पर बैठते — जैसे वे जानबूझकर उस संरचना को चुनौती दे रहे हों जो ‘शिक्षा’ को ‘पद’ से जोड़ती है। वे अपने बेटे को सिर पर हाथ फेरते हुए कहते, “बेटा, तू पढ़ना सीख जाए या नहीं, पर अच्छा इंसान बना रहे — यही मेरी कमाई है।”
एक दिन अंग्रेज़ी की कक्षा में, अध्यापक ने ‘pronouns’ पढ़ाया। यह व्याकरण का एक भाग था — परंतु युवी के लिए यह भाषा का पहला वह बिंदु था जो उसके तर्क से जुड़ सका। उसने इस खंड में पूर्ण अंक पाए। यह शिक्षा की नहीं, तार्किक आत्मबोध की जीत थी।
पर स्कूल एक तपोवन नहीं था। वहाँ प्रतिस्पर्धा थी, उपहास था, और एक अघोषित सांस्कृतिक युद्ध — जहाँ जो अलग है, उसे या तो झुका दिया जाता है या गुमनाम कर दिया जाता है।
युवी के भीतर अभी भी वह “स्वभाविक नैतिकता” जीवित थी — पर समाज की आँधी धीरे-धीरे उस दीपक की लौ को डगमगाने लगी थी…
कहानी: “युवी: एक अंतःकरण की मृत्यु”
भाग 2: परिवर्तन और पराजय
शुरुआत में युवी के भीतर एक मौन प्रतिरोध था — वह हँसी सहता, चिढ़ सहता, लेकिन अपने स्वभाव से डिगता नहीं। जैसे कोई ऋषि तप में लीन हो, और उसके चारों ओर का शोर केवल बाहरी हो। परन्तु मनुष्य कितना भी सरल क्यों न हो, जब बार-बार उसकी अस्मिता को रौंदा जाए, तो उसके भीतर की वह निर्भीक शांति भी थकने लगती है।
समय के साथ युवी में बदलाव आने लगा। पहले वह जिस तरह अपने कपड़ों की चिंता नहीं करता था, अब वह शीशे के सामने रुकने लगा। पहले जो चेहरे की बेफ़िक्री थी, उसमें अब आत्मसंदेह की लकीरें थीं। वह दूसरों की तरह दिखने की कोशिश करने लगा — बालों में तेल की जगह जेल, धूल से सने जूतों की जगह चमकते जूते, और सबसे गहरी बात — उसकी आँखों में जो निष्कलंक आत्मविश्वास था, वह अब दूसरों की नज़रों की कैद में था।
बदलाव की यह प्रक्रिया अचानक नहीं थी — यह धीमी, मगर सुनिश्चित मृत्यु थी उस व्यक्ति की, जो “सत्य को जीता था, बोलता नहीं था।”
अब वह ख़ुद से शर्माने लगा था, विशेषकर तब, जब उसका मज़ाक लड़कियों के सामने उड़ाया जाता। उसका सरल स्वभाव, जो पहले गहराई की तरह दिखता था, अब उसे बोझ लगने लगा। उसके भीतर यह भावना घर करने लगी कि “सरलता एक दोष है, जिसे छुपाना चाहिए।”
उसके अंग्रेज़ी शिक्षक, जो अब तक उसमें ईश्वर का अंश देखते थे, यह परिवर्तन देख कर मौन हो गए। वे समझते थे कि युवी अब समाज से स्वीकृति चाहता है — और यह स्वीकृति, उस मूल्य के मूल्यांकन के बदले माँगी जा रही थी जो उसे विशेष बनाता था।
एक दिन शिक्षक ने उसे अलग बुलाया और कहा —
“युवी, इस दुनिया की सबसे बड़ी हिंसा यह नहीं कि लोग एक-दूसरे को मारते हैं। सबसे बड़ी हिंसा तब होती है, जब समाज किसी व्यक्ति की मौलिकता छीन लेता है और उसे ‘सामान्य’ बना देता है। तुम अब आम होते जा रहे हो, और मुझे डर है, तुम सब कुछ पा लोगे — पर स्वयं को खो दोगे।”
युवी ने कुछ नहीं कहा। वह केवल चुप रहा। वह जानता था कि शिक्षक ठीक कह रहे हैं, पर भीतर एक और आवाज़ थी जो कहती थी — “अगर मैं ‘जैसा हूँ’ बना रहूँ, तो क्या मुझे कभी स्वीकारा जाएगा?”
यही द्वंद्व, यही फांक, एक बच्चे को दो हिस्सों में बाँट देती है — एक जो वह था, और एक जो उसे बनना पड़ा।
अब वह पढ़ाई में ठीक-ठाक करने लगा था। वजह यह नहीं कि वह समझने लगा था — बल्कि इसलिए कि वह नकल करने की तकनीक सीख गया था। पहले जिसे ‘ज्ञान’ माना था, अब वह ‘रिज़ल्ट’ बन गया था। स्कूल की सफलता की कसौटी पर अब वह एक ‘औसत’ छात्र था — और शायद यही समाज चाहता था।
वह अब “ठीक-ठाक” था। और यह सबसे बड़ा पतन था।
शिक्षक की आँखों में अब केवल मौन था। उन्होंने अपना प्रयास नहीं छोड़ा, पर वे जानते थे कि यह समाज, यह व्यवस्था, यह भीड़ — किसी अकेली अच्छाई को जीवित नहीं रहने देगी।
अब युवी को देखकर वे अक्सर सोचते —
“यह दुनिया अच्छाई को नहीं मिटाती, वह उसे बदल देती है — इतना कि वह ख़ुद को पहचान न पाए।”
कहानी: “युवी: एक अंतःकरण की मृत्यु”
भाग 3: प्रश्न और पत्थर
अब युवी बदला हुआ था — उसका पहनावा, चाल, व्यवहार, यहाँ तक कि हँसी भी। वह वही “मैं भी बाक़ी सब जैसा हूँ” वाली भीड़ की नकल बन चुका था। जिसने कभी आत्मा से जीवन को देखा था, अब वह बाहरी आडंबरों में सच्चाई खोजता फिरता था।
और सबसे दुखद यह था कि अब उसे अपने पुराने स्वरूप से शर्म आने लगी थी। जो कभी उसकी विशेषता थी, अब उसे हीनता का अनुभव कराने लगी थी। युवी ने स्वयं को इस तरह ढाला कि अब उसमें और उसके उपहास करने वालों में कोई अंतर न रहा। और यही समाज की सबसे खतरनाक जीत होती है — जब वह अपने आलोचकों को अपना अनुकरणकर्ता बना ले।
शिक्षक अब भी वही थे — एकाकी, विचारशील, और प्रतिरोध में मौन। वे जानते थे कि उन्होंने शायद युद्ध हार दिया है, पर विचार नहीं। एक दिन उन्होंने कक्षा में सब बच्चों से एक प्रश्न पूछा —
“अगर तुम्हें अपने जैसे सौ दोस्त मिलें, तो क्या तुम अकेलापन महसूस करोगे?”
पूरी कक्षा चुप रही।
फिर उन्होंने कहा —
“दुनिया हर किसी को एक-सा बनाना चाहती है, ताकि नियंत्रण आसान हो जाए। मगर जिस दिन तुम सब एक जैसे हो जाओगे, उस दिन ये संसार एक बड़ा श्मशान बन जाएगा — जहाँ सब ‘जीवित’ होंगे, पर कोई ‘जिन्दा’ नहीं होगा।”
उनकी बात युवी ने सुनी, पर अब वह उन शब्दों की गहराई तक नहीं पहुँच पाता था। कभी वह अपने शिक्षक की आँखों में स्वयं को देखा करता था, अब वह वहाँ भी अजनबी हो गया था।
समय बीतता गया। युवी उच्च कक्षाओं में पहुँचा, औसत अंकों से, औसत व्यवहार से, औसत आत्मा से। वह अब स्वीकार्य था — “सभ्य”, “नियमित”, “बुद्धिमान” — लेकिन वह वह नहीं था जो एक बार अपने गाँव से चला था।
शिक्षक अब बूढ़े हो चले थे। एक दिन स्कूल के आख़िरी प्रार्थना में उन्होंने अंतिम बार मंच से कहा —
“युवी जैसा कोई फिर नहीं आया। शायद अब कभी आएगा भी नहीं। पर मैं आज भी मानता हूँ — मनुष्य का मूल स्वभाव अच्छाई है। समाज की सबसे बड़ी क्रूरता यह है कि वह किसी को अच्छा रहने नहीं देता। शिक्षा का अर्थ डिग्री नहीं है, बल्कि उस मौलिक अच्छाई को बचाए रखना है, जिससे तुम इंसान कहलाते हो। पर आज… वह बचा नहीं।”
उन्होंने युवी की ओर देखा। युवी ने आँखें झुका लीं — न अपराधबोध से, न पश्चाताप से, बल्कि इसलिए कि वह अब स्वयं को पहचान नहीं पा रहा था।
(समाप्त)
- AFTAB AHMED
AN ENGLISH TEACHER
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